राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ || NCERT पर आधारित नोट्स

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राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ (Ancient Civilizations of Rajasthan) :-

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इतिहास का विभाजन 3 भागों में किया गया है - 

(1) प्रागैतिहासिक काल (2) आद्य ऐतिहासिक काल (3) ऐतिहासिक काल

1.प्रागैतिहासिक काल-(इसका कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।)

सर्वाधिक सामग्री पाशाण निर्मित इस कारण इसे पाशाणकाल भी भारत में पाशाण सभ्यता का अनुसंधान 1863 में रॉबर्ट ब्रसफुट ने पल्लवरम् (मद्रास) नामक स्थान से प्रारम्भ किया। राजस्थान में इस काल का प्रभाव गरदड़ा (बूंदी) में छाजा नदी तट से बर्डराइडर रॉक पेन्टिंग का चित्र मिला जो विश्व का सबसे प्राचीनतम भौल चित्र है। राजस्थान में पाशाण काल की 3 संस्कृतियों का बोध -

1.पूर्व पाशाण काल 

खोज - 1870 में भू वैज्ञानिक सीए हैकर ने जयपुर व इन्द्रगढ से की। इसके साक्ष्य ढिंगलिया (जयपुर), जायल, डीडवाना, झालावाड़, हमीरपुर(भीलवाड़ा), देवली (टोंक), मण्डपिया (चितौड़गढ़) सेप्राप्त हुए। दर (भरतपुर) के भौलाश्रय पर मानवाकृति, व्याघ्र, बारहसिंगा व सूर्य आदि का अंकन है ।

2.मध्य पाशाण काल-

इस काल मे छोटे उपकरण, स्क्रेपर एंव पाइन्ट का विशेश उल्लेख है इसके अवशेश तिलवाडा (बाडमेर ). बागोर (भीलवाड़ा), पचपदरा ( बाडमेर), सोजत (पाली) विराटनगर (जयपुर) व झालावाड़ आदि।

3.उत्तर पाशाण काल व नव पाशाण काल - 

इस काल की प्राचीन बस्ती मेहरगढ़ (ब्लूचिस्थान) में । इस काल में कृशि (गेहूँ व कपास) व मनुश्य के अनेक समुदाय, वर्ग एंव जातियाँ बनने लगी। इसके अवश - बुढा पुश्कर, भैसरोड़गढ, हम्मीरगढ व जहाजपुर (भीलवाड़ा), देवली, गिलुंड (राजसमंद), समदड़ी (बाडमेर), भरनी (टोंक) आदि। इस युग को गार्डन चाइल्ड ने पाशाण कालीन क्रान्ति कहा था।

2.आद्य ऐतिहासिक काल -

लिपि लिखित परन्तु पढने में सफलता नहीं। सिन्धुघाटी या हड़प्पा, कालीबंगा, वैदिक सभ्यता की गणना इसमें ही इस काल मे 'लिपि दायें से बांये, बांये से दांये व सर्प के समान लिखि जाती थी। अतः इस लिपि को बूस्ट्रोफेदन (गौमूत्रिका लिपि) व सर्पिलाकार लिपि कहते है रेडियो कार्बन-14 पद्धिती के विश्लेशण के आधार पर डी.पी. अग्रवाल ने हड़प्पा सभ्यता की तिथि 2300 ई.पू. से 1750 ई.पू. के मध्यमानी।

3.ऐतिहासिक काल -

लिखित साधनों पर निर्भर इसका प्रारम्भ 600 ई.पू. से इसके विकास काल में सर्वप्रथम ताम्बा धातु का प्रयोग किया। प्रमुख ताम्रयुगीन स्थल कुराड़ (नागौर), आहड़ (उदयपुर), एलाना (जालौर), बालाथल (उदयपुर), गणेशवर (सीकर), गिलूण्ड (राजसमंद),ओझियाना (भीलवाड़ा), कोल-माहोली (सवाईमाधोपुर). किराडोत, जोधपुरा, नन्दलाल पुरा ( जयपुर ) । मानव ने सर्वप्रथम ताम्बा काँसा व लोहे की धातु का प्रयोग किया गया।

हड़प्पा सभ्यता (सिंधु घाटी सभ्यता)

1. कालीबंगा सभ्यता ( हनुमानगढ ) - 

घग्घर नदी के तट पर इस स्थल का सर्वप्रथम ज्ञान LP. टैस्सीटोरी को हुआ। 

खोज- अमलानन्द घोष ने 1952 में एवं उत्खनन 1961-69 तक 9 सत्रों में B.V. लाल (ब्रजवासी लाल) B.K. थापर एंव J. V. जोशी द्वारा ||

खुदाई का कार्य 5 स्तरो पर प्रथम व द्वितीय स्तर को हड़प्पा से भी प्राचीनएवं अन्य 3 को हड़प्पा कालीन। इसका स्वतंत्रता के बाद पहली बार उत्खनन किया गया।

  • यह एक सुव्यवस्थित नगर योजना थी। 
  • यहां सड़के एक दूसरे को समकोण काटती थी इस कारण आक्स्फोर्ड, जाल ग्रीड व चेस बोर्ड पद्धतिपर आधारित मकानों में मिट्टी की ईटें जिन पर गारे का पलस्तर। 
  • यहां नगर योजना के 2 टीलेप्राप्त हुए हैं पूर्वी टीला नगर टीला जहां बस्ती का साक्ष्य एंव पश्चिमी टीला दुर्गटीला तथा दोनों ओर सुरक्षा प्राचीर । कालीबंगा का शाब्दीक अर्थ काली चुड़ियातथा यहाँ से काली चूड़ियों के टूकडे मिले इस कारण कालीबंगा । 
  • कालीबंगा एक सिन्धी शब्द है । दशरथ भार्मा ने कालीबंगा को सैन्धव सभ्यता की तीसरी राजधानीकहा हैं। प्रथम हड़प्पा व दूसरी मोहनजोदड़ो । 
  • कालीबंगा से प्राप्त प्रमुख अवशेश जूते हुए खेत के साक्ष्य सरस्वती प्रवाह क्षेत्र को संस्कृत साहित्य में बहुधान्यदायकक्षेत्र कहा ।
  • एक खोपड़ी में 6 छिद्र जिससे खोपड़ी की भाल्य चिकित्सा के प्रमाण ।
  • घर कच्ची ईंटों से निर्मित अतः इसे दीन-हीन बस्ती भी। सर्वाधिक काँसे का प्रयोग इस कारण कॉस्य युगीन सभ्यता ।
  • यहाँ से सिन्ध घाटी सभ्यता की लिपि के प्रमाण जो दांये से बालिखि जाती थी इसे भावचित्रात्मक (पिक्टोग्राफिक ) लिपिं ।
  • एक संग्रहालय की स्थापना राज्य सरकार द्वारा 1985-1986 में । भवनों की छत लकड़ी की बाल्लियों एंव मिट्टीसे ।
  • यहाँ से प्राप्त बर्तनों पर लाल या गुलाबी है जिन पर कोल या भूरे रंग की तिर्यक रेखाएँ बनी हुई है। धार्मिक प्रमाण के रूप मे अग्नि वेदियों के साक्ष्य । यहाँ धूप में पकाई ईटों का प्रयोग । सभ्यता मे पतन का कारण सुखा एंव नदी मार्ग में परिवर्तन ।
  • अलंकृत ईंटें, ताम्बे व मिट्टी का बैल।

2. आहड़ सभ्यता (उदयपुर) - 

  • बेड़च या आयड़ नदी के किनारे खोज अक्षय कीर्ति व्यास (1953) उत्खनन 1954-56 में आर. सी. अग्रवाल 1961-62 मे वी एन मिश्रा व एच डी सांकलियाँ । इसमें बस्तियों के 8 स्तर मिले है। प्रथम स्तर में मिट्टी की दीवारे, बर्तन व पत्थर दूसरे में बर्तनों की परिश्कृतता, तीसरे स्तर में चित्रित बर्तन व चौथे स्तर में ताम्बें की कुल्हाडियाँ
  • यहाँ ताम्बा गलाने की मट्टी व उपकरण प्राप्त हुए इस कारणइसे ताम्रवती नगरी स्थानी नाम धूलकोट । 10 वीं शताब्दी में इसे आघाटपुर। गोपी नाथ शर्मा के अनुसार इसका समृद्ध काल 1900 ई. पू. से 1200 ई. पू. आहड़ से प्राप्त अवशेष 
  • ताम्बे के साथ-साथ लोहे की कुल्हाडियाँ, चाकू आदि मिले। यहाँ की विशेश आकृति के बर्तनों को काले व लाल मृदभाण्डकहा जाता था ये उल्टी तपाई पद्धति से पकाये जाते थे अजान रखने के बड़े-बडे मृदमाण्ड काम मे लिए जाते थे जिन्हे गौरे या कोठे कहा सयुक्त परिवार प्रथाथी क्योकि 5-6 कमरे एक साथमिले तथा प्रत्येक कमरे में 5-6 चूल्हे
  • बिना हत्थे के छोटे जलपात्र ऐसे जलपात्र ईरान में भी मिले हैं सु यहाँ टेराकोटा वृशम आकृतियाँ मिलि जिन्हे बनासियन बुल जो समकालीन लोक कला की प्रतीत ताम्बे के मुदाए मिली जिनमें एक मुद्रा के एक ओर त्रिशूल एंव दूसरी ओर तीर व तरकश से युक्त यूनानी देवता अपोलो अंकित । 
  • 5 सिर को आभूशण सहित गाड़ते तथा सिर उत्तर दिगा में । यहाँ की तीन मुहरों पर विहितमविस, पलितसा, तातीयतोम सन अंकित | 

आहड़ सभ्यता के अन्य केन्द्र - 

गिलूण्ड (राजसंमद), बालाथल (उदयपुर),ओझियाना (भीलवाडा) । 

• इस सभ्यता को मृतको की टिलें की सभ्यता भी कहते है 

3. रंगमहल (हनुमानढ़) - 

उत्खनन- 1952 में स्वीडन की पुरातत्वविद् हन्ना रिड के निर्देशन में । यहाँ उत्खनन में लाल रंग के पात्रो पर काले रंग के डिजाइन बने हुए इसी के आधार पर रंगमहल। यहां की मृण्मूतियाँ गंधार मौली की एक मूर्ती गुरु-शिश्य की। यहाँ से कुशाण व पूर्व गुप्त कालीन संस्कृति के अवशेश प्राप्त हुए। इनका 8. चावल मुख्य भोजन अर्थात चावल की खेती करते थे। यहां से घंटाकार मृदुपात्र, टोंटीदार घड़े कटोर, बर्तनों कैढक्कन, दीपक, दीपदान व धूपदान प्राप्त हुए बच्चों के खेलने हेतु छोटी पहियेदार गाड़ियाँ

4. बागौर (भीलवाड़ा) - 

कोठारी नदी के किनारे। V.N. मिश्र के नेतृत्व में 1967 से 1970 तक की गई खुदाई में। मानव सभ्यता के 3 युगों के अवशे मिले यहाँ 5000 ई. पू. से 200 ई. के बीच के साक्ष्य

  • मध्यपाशाण कालीन संस्कृति के अवशेश । 
  • यहां के सर्वाधिक 14 प्रकार के कृशि किये जाने के अवशेश । इस कारण इसे आदिम संस्कृति का संग्रहालय भी।
  • यहां से नर कंकाल भी मिला। यहां मृत भारीर को घरों में गाड़ना व उनके साथ बर्तन, उपकरण रखने के अवशेश प्राप्त हुए।
  • यहां से आखेट व पशुपालन के भी साक्ष्य ।
  • बागोर मध्यपाशाण कालीन सभ्यता का स्थल एवं लघुपाशाणों पकरणों का प्रमुख केन्द्रथा ।
  • इस सभ्यता का प्रथम स्तर मानव के आखेट जीवन द्वितीय स्तर पशुपालन एवं तृतीय स्तर कृशि अवस्था की ओर -अग्रसर होने का ।

5. बालाथल (उदयपुर) - 

उत्खनन 1993 V.N.. मिश्र के निर्देशन VS) सिन्दे R. K. मोहन्ते देव कोठारी ने किया। इसकी खोज 1962-63 में V.N. मिश्रने यहां से ताम्र पाशाणयुगीन सभ्यता के अवशेश मिले है। 

  • यहां से प्राप्त मृद्भाण्ड अपरिश्कृत तथा बहुत कम मात्रा मे अलंकृत मिले है जो आग में पूरी तरह पके हुए भी नहीं है। मिट्टी की बनी सांड की आकृतियां भी जिनका प्रयोग पूजा के लिए । 
  • ताम्बे के सिक्के जिन पर हाथी एवं चन्द्रमा की आकृति लोहे गलाने की 5 भट्टियों के अवधीश भी बैराठ के बाद बालाथल ही ऐसा स्थान जहां बुना हुआ वस्त्र का टुकड़ा प्राप्त हुआ। 
  • यह 1800 ई. पू. ताम्र पाशाणयुगीन एवं 600 ई. पू. लौहयुगीन सभ्यता विकसित हुई । आजीविका के लिए आखेट कृशि व पशुपालन। 4000 वर्ष पुराना कंकाल मिला है। जिसे भारत में कुष्ट रोग का सबसे पुरातन प्रमाण माना जाता है योगी मुद्रा में शवाधान प्राप्त हुआ है।

6. गिलूण्ड (राजसमंद) - 

  • बनास नदी के किनारे । ताम्रयुगीन सभ्यता के अवशेश उत्खनन 1957-58 में B.B. लाल तथा पुनः 2003 में ग्रेगरीपोशल (अमेरिका) व वी. एस. सिन्देके निर्देशन में ।
  • यहां के काले रंग के चित्रित पात्रों पर नृत्य मुद्राएं व चिकतेदार हिरण । हड्डियों के छोटेछोटे टूकड़े जो जंगली जानवरों के माने जिससे मानव के मांसाहारी होने का घोतका मिट्टी के बर्तन, पत्थर की गोलिया व दाँत की चुड़ियों के अवशेश। 

7. गणेशवर (सीकर) - 

प्राक हड़प्पा हडप्पाकालीन व ताम्रयुगीन स्थल कांतली नदी के उद्गम स्थल । इसका कालक्रम 2800 ई. पू. से 2200 ई. पू. । यहां से हड़प्पा व मोहनजोदड़ो को ताम्बा भेजा जाता था अतः गणेश्वर को पुरातत्व का पुश्कर बदले में इन्हें अनाज मिलता था। खोज - 1967 में विजय कुमार ने उत्खनन 1977 में रमेशचन्द्र व विजय कुमार ने । 

  • भारत में ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी

प्रमुख अवशेश:-

  • ताम्बे के उपकरणों में मुख्यतः बाण, फरसे, भालाकाएँ, मछली पकड़ने के कांटे, छेनियां, केशपीन आदि यहां से प्राप्त उपकरणों एवं पात्रों में 99 प्रतिशत ताम्बा इस कारण इसे ताम्र संचयी संस्कृती कहा जाता है। छल्लेदार मिट्टी के बर्तन केवल गणेश्वरमें ही मकान व बाढ़ से बचने हेतु पत्थर से बांध बनाये जाते थे।
  • यहां से प्राप्त मृदभाण्ड कपिशवर्णी मृदपात्र 

8. ईसवाल (उदयपुर) - प्राचीन औद्योगिक बस्ती। 

  • यहां 5 स्तरों पर बस्तियों के प्रमाण मिले। उत्खनन में भवनों के अवशेश चूल्हो व लालरंग के मिट्टी के बर्तन मिलें । मकान प्रस्तर खण्डों से निर्मित जिन्हें मिट्टी के गारे से जोड़ा जाता है। यहां मौर्य काल व भांग कुशाण काल में लोहे गलाने विधियां संचालित

9. ओझियाना (भीलवाड़ा)- 

आहड संस्कृति से सम्बन्धित । 

उत्खनन - 2000 में बी. आर. मीणा व आलोक द्वारा । यहां ताम्र युगीन सभ्यताके अवशेश मिले। इसका विकास 3 चरणों में प्रथम चरण - कृशक वर्ग से सम्बन्धित, द्वितीय चरण पत्थर से आवास संरचनाए, अन्नभण्डार, तृतीय चरण- भवन निर्माण के तरीके और इस संस्कृति के पतनावस्था के प्रमाण मिले। 

  • यहां से वृशम एवं गाय की मृण्मूर्ती, पत्थर के मनके, भांख व ताम्बे की चूड़ियां आदि प्राप्तहुए

10. जोधपुरा (कोटपुतली, जयपुर) - 

साबी नदी के तट पर लौहे के उपकरण बनाने की प्राचीनतम भट्टियां यहां भांग व कुशाण कालीन सभ्यता के अवशेश मिले। 1972-73 व 74-75 के उत्खनन कार्य से गैरिक रंग के पानी पीने के पात्र, कटोरेआदि। सलेटी रंग के पात्रों पर काली रेखाओं चित्रण सुन्दर व कलापूर्ण ।

11. तिलवाड़ा (बाड़मेर) - 

लूनी नदी के तट पर । उत्खनन 1966-67 में मुख्यतः अग्निकुण्ड, एक गोलाकार झोपड़े के अवशेश वी. एन. मिश्र ने इस सभ्यता का काल 500 ई. पू. से 200 ई.

12. नगर (टोंक) -

प्राचीन नाम मालव नगर व कार्कोट नगर। इस स्थल का सर्वप्रथम उत्खनन 1942-43 में श्रीकृश्ण देव यहां से महिशासुर मर्दिनी, एक मुखी शिवलिंग, तीन फणधारी नाग व कमल धारण किए हुए लक्ष्मी। यहां से सीप की चूड़ियां, मणके, पत्थर की मूतियां, धातु आदिकी बनी वस्तुओं के अवशेश भी यहां से 6000 मालव सिक्के ।

13. नगरी (चितौड़) - 

शिविजनपद की राजधानी माध्यमिकाके नाम से जानी जाती थी। खोज - 1872 में ए. सी. एल. कार्लाइलद्वारा तथा उत्खनन - 1904 ई. में R. G. भंडारकरद्वारा तथा दूसरी बार खुदाई 1962 ई. में केंद्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा N. R. बनर्जीद्वारा। इसका कालक्रम चौथी भाताब्दी से 7वी. दूसरी बार की खुदाई में सादे लाल एवं सलेटी रंग के पात्र मिले। यहां से 4 चक्राकार कुए भी।

14. नलियासर (जयपुर)- 

यहां खुदाई से आहत मुदाए उत्तर इण्डोससेनियन सिक्के, इण्डो-ग्रीक सिक्के, योधेय गण के सिक्के. हविश्क के सिक्के तथा गुप्त युगीन सिक्के प्राप्त हुए। यहां से स्वर्ण निर्मित खुदा हुआ सिंह सिर, भीशे की चूडियां व कांसे के कड़े भी मिले है। चौहान युग से पूर्व की सभ्यता की अवशेश मिले है।

15. नोह (भरतपुर)- 

रूपारेल नदी के किनारे स्थित इस का उत्खनन 1963-64 में डेविडसर व श्री रत्नचन्द्र अग्रवाल के संयुक्त निर्देशन में ।

यहां से 5 सांस्कृतिक युगों के अवधीश प्राप्त हुए। यहां से जाखबाबा की आदमकद यक्ष की प्रतिमामिली। यहां से चिड़िया, गौरैया का खिलौना, एक मृदपात्र पर स्वास्तिक चिह्न का चित्रांकन पाप हस्त्र अंकन वाली मुद्रा यहां से कुशाण नरेश हृविस्क एवं वासुदेव के सिक्के भी प्राप्त हुए।

16. बरोर (श्री गंगानगर) - 

सरस्वती नदी यहाँ 2003 ई. से उत्खनन कार्य हो रहा है। यहाँ से विकसित भाहर सभ्यता के अवधीश एंव बटन के आकार की मुहरे मिली। भारत में एकमात्र बरोर से प्राप्त मृदभाण्डों में काली मिट्टी का प्रयोग किया गया था।

17. बैराठ (जयपुर)

मत्स्य जनपद की राजधानी है। खुदाई में सिन्धु घाटी सभ्यता के समकालीन, मौर्य काल और मध्यकाल के अवशेशमिले है। बैराठ में सर्वाधिक भौलचित्रों की खोज हुई जिसके कारण पुरात्ववेताओं ने इन्हें प्राचीन युग की चित्रशाला । उत्पति का आधार - बाणगंगानदी । इस सभ्यता की खोज 1922 में दयाराम साहनी एंव उत्खनन कार्य 1936-37 में दयाराम साहनी व 1962-63 में नीलरल बनर्जी व कैलाशनाथ द्वारा

बैराठ से प्राप्त अवशेश

  • यहाँ से 8 चाँदी की पंचमार्क मुद्राएँ, 28 इण्डो-ग्रिक व 16 यूनानीराजा मिनेण्डर की ।
  • मौर्यकालीन अवशेश बीजक की पहाड़ी से प्राप्त हुए है। भांख लिपि के प्रमाण प्राप्तहोते है।
  • चित्रित स्लेटी मृदभाण्ड भी प्राप्त होते है। जिन पर स्वास्तिक व चिरत्नचक्र के चिह्न
  • भवन निर्माण में इटों का प्रयोग ।
  • यहां 6-7 कमरों का एक खण्डरनूमा भवन मिला जिसे पुरात्ववेता बौद्धमठ मानते हे। दयाराम साहनी के अनुसार हूण भासक मिहिरकुल ने बैराठ का ध्वंस किया।
  • हाथ से बुना गया सूती कपड़ा इससे ज्ञात होता है यहां के निवासी वस्त्र बुनाई कला से परिचित ।

18. भीनमाल (जालौर)-

1953-54 में रतनचन्द्र अग्रवाल के निर्देशन में खुदाई। यहां से प्राप्त अवशेशों में एक भाकक्षत्रपों के सिक्के, यूनानी दुहत्थी सुराही, रोमन एम्फोरा (सुरापात्र ) आदि

19. रैढ़ (टोंक)- 

ढील नदीके किनारे स्थित रैद का उत्खनन 1938-40 में के. एन. पूरी द्वारा करवाया। पूर्व गुप्तकालीन सभ्यता के अवशेश। यहां एशिया का सबसे बड़ा सिक्कों का भण्डार । यहां से चांदी के पंचमार्क सिक्के जिनमें मालव गणराज्य अपोलोडोट्स का सिक्का इण्डोससेनियन सिक्के काफी मात्रा में मिले। यहां से प्राप्त एक सीसे की मुहर पर मालव जनपद-स ब्राह्मलिपि में अंकित है।

  • लोह सामग्री का विशाल भण्डार मिलने के कारण इसे प्राचीन भारत का टाटानगर या प्राचीन राजस्थान का टाटानगर कहा जाता है। 
  • यहां से 115 रिंग वेल्स प्राप्त हुए है यहां पालिदार रंगीन मणियां, हाथी दांत तथा कांसे की वस्तुएं तीसरी भाताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी भाताब्दी तक इस स्थान को बहुत सम्पन्न सिद्ध करती है।

20. सुनारी (झुन्झुनू )-

कांतली नदी पर लोहे बनाने की भट्टियो के अवशेश प्राप्त हुए। लोगचावल का प्रयोगकरते थे तथा आखेट एवं कृशि निर्भर थे। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि यहां कीबस्ती वैदिक आर्यों ने बसाई थी यहां से कुशाण युग में काले रंग के मृदपात्र प्याले, सिकारे आदि मिले जो चाक द्वारा बनाए जाते थे। 

  • मातृदेवी की मृणमूर्तिया व धान संग्रहण का कोठा भी।

21. जूना खेड़ा (नाडोल - पाली) -

नाडोल में चौहान वंश की स्थापना 10वीं सदी में राव लाखन ने की खोज व उत्खनन 1883-84 एच.डब्ल्यू. गैरिक द्वारा। यहां नियोजित नगर के साक्ष्य मिले। यहां से प्राप्त एक मिट्टी के बर्तन पर भालभंजिका का अंकन ।

22. करणपुरा (भादरा, हनुमानगढ) - 

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा 8 जनवरी, 2013 का यहां खुदाई में हड़प्पा के अवशेश मिलें

23. बांका गाँव (भीलवाडा) - 

राजस्थान की प्रथम अलंकृत गुफा ।

24. जायल (नागौर) - 

पूर्व पाशाणकालीन स्थल। यहां से हमें चापर, विदारणी आदि पाशाण उपकरण प्राप्त हुए ।

25. कुराड़ा (नागौर) - 

1934 में तामृयुगीन संस्कृति से संबंधित सामग्री प्राप्त हुए यहां से नालीदार टोटी का कटोरामिला । 

26. बयान (भरतपुर)- 

गुप्तकालीन सिक्कों व नील की खेतीका साक्ष्य प्राप्त होते है।

27. अन्य - 

  • काकोली पुरास्थल (बारां). 
  • लाघूरा (भीलवाड़ा) 
  • एलाना (जालौर) - ताम्रयुगीन अवशेश ।

28. बौद्ध कालीन गुफाएं- 

झालावाड़ में कौल्वी, विनायका, हाथिया गाँड, पगारिया एवं गुनाई स्थानों पर बौद्धधर्म के मठ व गुफाएं है। इनमें कौल्दी की बौद्ध गुफा प्रसिद्ध है। कौल्वी बौद्ध गुफाएं आनी संख्या (45) और सौन्दर्य के कारण राजस्थान का एलोरा कहलाता है। इनका निर्माण काल 500 से 700 के मध्य माना गया है।

ताम्र युगीन 

  • आहड (उदयपुर)
  • बालाथल (उदयपुर)
  • गिलूंड (राजसमंद)
  • ओझियाना (भीलवाड़ा)
  • नोह (भरतपुर)
  • झाड़ोल (उदयपुर)
  • नंदलालपुरा (जयपुर)
  • किराडोत (जयपुर)
  • चीथवाड़ी (जयपुर)
  • बूढा पुश्कर (अजमेर)
  • कोल माहोली (स. माधोपुर)
  • मलाह (भरतपुर)
  • एलाना (जालौर)
  • कुराडा (नागौर)
  • साबणिया (बीकानेर)
  • मुंगल (बीकानेर)

लौह युगीन 

  • रेट (टोंक)
  • जोधपुरा (जयपुर)
  • सुनारी (झून्झूनू)
  • ईसवाल (उदयपुर)
  • विराटनगर (जयपुर)
  • बैराठ (जयपुर)
  • सांभर (जयपुर)
  • तरखानवाला डेरा (श्रीगंगा
  • चक-84 (श्रीगंगा)
  • नगर (टोंक)
  • खेड़ा (टोंक)
  • रंगमहल (हनुमानगढ)

पाषाण युगीन 

  • बागौर (भीलवाड़ा)
  • तिलवाड़ा (बाडमेर)
  • बिलाडा (जोधपुर)
  • उम्मेदनगर (जोध.)
  • दर (भरतपुर)
  • नगरी (चितौड )
  • डडीकर (अलवर)
  • कोटड़ा (झालावाड़)
  • गरदड़ा (बंदी)
  • कुड़ा-ओला (जैसलमैर )
  • तिपटिया (कोटा)
  • जायल (नागौर)
  • डीडवाना (नागौर)

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ (Ancient Civilizations of Rajasthan)

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